Sunday 16 August 2015

एक सुखद यात्रा पूर्णिया से बैंगलोर तक की...!!

बात उन दिनों की है  जब हम छुट्टियों में अपने घर पूर्णिया आये हुए थे , छुट्टियां ख़त्म हुई और हम घर से वापस बैंगलोर को रहे थे..मार्च का महीना था ..थोड़ी गर्मी पड़ने को थी, पसीने में लथ-पथ थे..गाडी अपने समय से पहले स्टेशन पहुंच चुकी थी ..हम अपने पापा के साथ थे जो हमें छोड़ने को स्टेशन तक आये हुए थे,,.कुछ देर पापा हमारे साथ हमारी बगल वाली सीट पर बैठे , फिर गाडी ने हॉर्न (सिटी ) दी ..उसके बाद मैंने पापा को प्रणाम किया और उनसे इज़ाज़त मांगी की जल्द ही फिर वापस आऊंगा इस बार और थोड़े दिन हाथ में रखूँगा

इतने
में एक लड़की यही कोई २३-२४ साल उमर रही होगी हांफती हुई ..अपने दुप्पटे से चेहरे को पोछती हुई  हमारे कोच के दरवाजे के पास खड़ी थी शायद उसे भी उसी ट्रैन से सफर करना था..पर वो सामान लेकर दरवाजे पे क्यों खड़ी थी ये मेरी समझ से परे था ..कुछ देर रुक कर जो मन के अंदर सवाल उठ रहे थे हमने आखिर पूछ ही लिया  आप यहाँ क्यों खड़े हो? कुछ देर में गाडी रवाना हो जाएगी जल्दी से ऊपर आ जाओ ,,फिर वो बोली : मै अपने भाई और माँ का इंतज़ार कर रही हू जो के साथ में आये हैं.मैं थोड़ी आगे आ गयी और ये भी डर था की ट्रैन निकल न जाय  .एक बैग उनके साथ है..कुछ देर बाद उनके भाई और उनकी माँ आयी और उन्हें दूसरा बैग थमा कर उसे विदा करी ( अमूमन ये हमारे संस्कार में है की विदा लेते समय हम अपने बड़ो को प्रणाम और छोटे को गले से लगाते हैं और नम आखों से अगली बार का भरोसा दिलाते हैं )  फिर कुछ देर में वो ट्रैन में चढ़ी जो बस प्लेटफॉर्म से चलने को ही थी ।। हम अपने शहर को अपनी भीगी आखों से ये कहने की कोशिश कर रहे थे अपनों को विदा करना , अपनों से दूर सिर्फ रोजी रोटी के लिए जाना कितना कष्टकारी होता है) संजोग से उसकी सीट मेरे ही बगल में थी ( लो भैया अब सुनिए आगे )... सन्नाटा सा पसरा था।  ..क्यों की कम्पार्टमेंट में जो की ८ सीट्स थी उसमे सिर्फ एक लड़की..शायद वो लड़की भी यही सोच रही थी कहा आकर फस गयी,,चुपके से फ़ोन निकाली अपनी बैग से और  अपने दोस्त को मैसेज में बता रही थी ( ऐसा मै सोच रहा था )..इट्स बोरिंग यार. ऑल आर गाइस ओनली...हाहा....!!





फिर कुछ देर बाद टीटी महोदय आए .एकदम्मे धुत्त काले कोट धारण किये और दिए लम्बा लबा बखान अपने एकदम सुच्चा बिहारी स्टाइल में  हमारे टाइम ऐसा और आज के टाइम में ऐसा, मानो उनकी वाणी को विराम देने को सोच सभी लोग रहे थे , किन्तु ८ लोग में कोई नहीं था जो उनके ऊपर चुटकी ले सके, फिर मुझसे रहा ना गया, चुटकी लेना कहां क्या बोलना ये तो अपनी प्रकृति रही है,,सो हमने चुटकी ली और सभी हंस पड़े ( कुछ इस अंदाज़ में अरे कहाँ सर... का बात कर रहे है हमरे यहाँ तो ऐसा होता है )..फिर धीरे धीरे सभी लोग एक दूसरे से जान पहचान बढ़ाने कि कोशिश करने लगे ( ये हमारे यहाँ का स्वभाव है यदि हमलोग कही यात्रा करते है तो आस पास कौन बैठा है कौन कहा जा रहा है जरूर पूछते है इससे अपनापन बढ़ जाता है )..फिर शीत वाक्य युध्ह छिड़ा पूर्णिया और कटिहार के बीच कौन बेहतर किस दृष्टिकोण से ( एकदम अखाडा के माफिक ), हम पूर्णिया वाले चाहे कैसे भी हो जब बात हमारी शहर की होती है XYZ कुछ भी प्रूफ करके अपने जगह को आगे कर ही देते हैं ( ऐसे ये तो हुई मज़ाक की बात हमारा पूर्णिया २५० साल लगभग पुराना है और इसका इतिहास बस आप इस अंदाज़ में लगा सकते है जहां के फणीश्वर नाथ रेणु जी थे जिनकी मैला आँचल उपन्यास पर "तीसरी कसम" सिनेमा बनी) हुआ भी यो ही,,फाइनली जहां के भी लोग थे पूर्णिया को श्रेष्ठ मानने में कतराएं नहीं,.. हमारे बीच एक अनोखे भाई साब थे जो की एयरफोर्स में कार्यरत थे , बेचारे बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन का एग्जाम देने आये थे ..चार दिनों से सिर्फ ट्रैन से ही यात्रा कर रहे थे क्यों की लगातार २ एग्जाम और आना जाना अनवरत ( ये कोई हमारे फौजी भाई ही कर सकते है उस पर से जो बिहार से हो जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाय तब तक संघर्ष एकदम मांझी टाइप "जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं " ) ..हम रख दिए उनका नाम "कलाकार" ..स्वाभाव के बड़े ही नम्र व्यक्ति.थे .हम लोग चाहे कुछ भी बोल देते पर उनको तनिक भी बुरा नहीं लगता था,,,।। एक भाई जी और थे बगल वाली सीट पर जिनका नाम ध्यान में तो नहीं है.पर इतना याद है उनको भुवनेश्वर उतारना था..उनसे थोड़ी बात हुई थी वो केरल के किसी बीच का जिक्र कर रहे थे, साथ ही थोड़ा टाइम जब भी मिलता था उन्हें तो वो बस बोल पड़ते थे... यहाँ ये यहाँ वो और उसे साबित करने के लिए तो ये देख लो टाइप करके मोबाइल झट से आगे बढ़ा देते थे  ,,आई - फोन जो रखे हुए थे ...जरा सी कुछ बात बात पर गूगल सर्च फट से अपना फ़ोन निकाले और सर्च करना चालू..खैर इसी के साथ यात्रा का पहला दिन समाप्त हुआ किसी तरह ,,!!


 

दूसरा दिन..

सुबह होते ही भुवनेश्वर वाले भाई साब उतर गए.अपने स्टेशन आने पर।। .चुकी यात्रा लम्बी थी तो हमने सोचा यदि थोड़ी चहल -पहल ना हो तो सफर बोझिल हो जायेगा ( ये एक फायदा होता है जब आप फ्लाइट से न जाकर ट्रैन से यात्रा करते है फ्लाइट में एक तो यात्रा का समय काफी छोटा होता है और लोग भी काफी मतलबी , किन्तु ट्रैन का सफर यदि अच्छे लोग मिल जाय तो एक रिश्ता सा बन जाता है )..अब बात करते है दूसरे दिन की ..एक शांत सा लड़का जो कटिहार से ही चढ़ा था ट्रैन में ..बोला हम भैया बैंगलोर से ही इंजीनियरिंग किये अभी कुछ दिन पहले जॉब लगी है पुणे शिफ्ट हो जायेंगे ( तो यूँ हमलोग पहले बातें शुरू किए)..यात्रा लम्बा है कैसे कटेगा..कार्ड(ताश की पत्ती) है हमारे पास यदि आपलोग साथ दीजिये तो समय निकल जायेगा..सभी तैयार हुए .एक लोग बच रहे थे ( यूँ तो कम्पार्टमेंट में ८ लोग थे पर कुछ मोबाइल में तो कोई अपने उसके साथ बिजी थे ) , सभी ने मिलकर उस लड़की को कार्ड खेलने के लिए कहा  ..तो लड़की बोली मुझे तो खेलना भी नहीं आता है .(खैर हमें कौन सा आता था..) फिर हमलोगो के बीच हसी ठहाकों के बीच यात्रा जो के उबाऊ हो रहा था कुछ देर में मजेदार हो गया सभी मिलकर यु चादर बिछाये और दे ताश की पत्ती ये रहा गुलाम , जोकर, बादशाह , टिकरी , पान इसके साथ ही खेल शुरू।। ..मानो ऐसा लग ही नहीं रहा था की हम लोग एक दूसरे को नहीं जानते थे..दिन तो किसी तरह बीत गया..भूख बढ़ रही थी शाम होने को थी .सबने फैसला किया की हमलोग विजयवाड़ा में ही खाएंगे ( बड़ा ही चर्चा सुना था वहां के बिरयानी का पर कभी हिम्मत ना हुई यात्रा के दौरान ट्रैन से उतर कर खाना ला सके )..शाम होने को थी लगभग ठीक ७ बजे जो लड़की हमलोग के साथ बैठ के खेल रही थी उसने अपना लैपटॉप लिया दूसरी सीट में जाकर बैठ गयी..(भगवान जाने क्या कर रही थी, शायद उसे कार्ड के गेम में इंटरेस्ट नहीं था..तो मूवी लगा के बैठी होगी )..मैने चुपके से उसे देखा तो वो बालों को सवार रही थी ..कुछ देर बाद फिर वापस उसी सीट पे आकर बैठ गयी..कुछ ही देर में विजयवाड़ा स्टेशन आने वाली थी..मै और एक भाई साब जो BHEL में कार्यरत थे दोनों ने जिम्मा लिया सबके लिए यहाँ से बिरयानी लाएंगे,,मैंने सब को बोला भाई सब थोड़े थोड़े पैसे दो और फिर कॉन्ट्री के पैसे लिए सबसे..फिर दोनों लोग चल पड़े बिरयानी की पैकिंग करवाने प्लेटफार्म नंबर ७ से ..साथ में हमने ये भी कहा ..यदि गाड़ी निकलने लगी चैन खीच देना .सब मिलके पैसे भर देंगे..हम बाहर निकले और सब लोगो के लिए मस्त सा डिनर का इंतज़ाम किये..बिरयानी, कवाब, कोल्ड ड्रिंक ..फिर सब अनजाने से लोगो की एक फैमिली सी बन गयी.सबने मिलके डिनर किया..और सब लोगो के लिए हमने मॉकटेल बनाया ..३-४ कोल्ड ड्रिंक को एक साथ मिलाकर..सब मस्त खाए पिए., हंसी ठठोली हुई .और सब अपनी अपनी सीट पर सोने चले गए..बहोत देर तक हमें नींद आई नहीं..फिर .हमने हेड फ़ोन लगाया..गानो के साथ हम भी सो गए.और पलक झपकते ही    सुबह हो गयी।। .


तीसरा दिन

ये हमारी यात्रा की आखिरी दिन थी..अब हम सुबह ठीक ९ बजे बैंगलोर पहुंचने वाले थे..सब यही टेंशन में थे आज ऑफिस जाना ..है कैसे कैब को बुलाया जाए,कोई रिलेटिव को फ़ोन किए जा रहा था..कोई यात्रा अच्छी होने की खबर सुना रहा था..सब लोग एक दूसरे को धन्यवाद बोल रहे थे..इसी बीच वो लड़की थोड़ी हिम्मत जुटा कर मेरे से पूछती है..भैया,.ये पता बताएँगे,,? ये भी शायद आप जहां रहते हो वही आस पास है..मैंने पता देखा और मुस्कुराया बोला हां मुझे पता तो है ..लेकिन मुझे भी बहुत ज्यादा आईडिया नहीं है...लेकिन फिर भी मैं आपकी मदत कर दूंगा ..फिर मैं चुप हो गया..हमलोगो में से अधिकतर लोग कृष्णराजपुरम ( बैंगलोर का एक स्टेशन ) में उतरने वाले थे..जैसे ही हमने बैग पैक किया और जाने लगे.उस गुमनाम लड़की ने हिम्मत करते हुए.हमसे कहा.यदि आप बुरा ना माने तो आप अपना नंबर हमें दे सकते हैं..? हमने बोला ठीक है..फिर नंबर दिया हमने..और हमलोग उतर गए,,उस लड़की को यशवंतपुर तक जाना था..उतरने के साथ सबको अलविदा कहा..इस तरह से ये यात्रा एक यादगार लम्हा बन गई..आज की तारीख में वो लड़की मेरी सबसे अच्छी दोस्त है....!!


धन्यवाद,
आनंद